Nothing Special   »   [go: up one dir, main page]

सामग्री पर जाएँ

तैमूरलंग

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
शुजा-उद-दीन तैमूर
आमीर
जन्म6 अप्रैल 1336
शहर-ऐ-सब्ज़, उज्बेगिस्तान
निधन19 फरवरी 1404
ओत्रार, कजाख्स्तान
समाधि
गुर-ऐ-आमिर, समरकंद, उज्बेगिस्तान
घरानातैमूर, मुगल
मातातकीना खातुन

तैमूरलंग जिसे 'तैमूर', 'तिमूर' या 'तीमूर' भी कहते हैं, (8 अप्रैल 1336 – 18 फरवरी 1405) चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी।[1] उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का लोहार थे। भारत के मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तिमूर का ही वंशज था।

तैमूर का राज्य
तैमूर का सुनहरे क्षेत्र (गोल्डेन होर्ड) पर आक्रमण

तैमूर का जन्म सन्‌ 1336 में ट्रांस-आक्सियाना (Transoxiana), ट्रांस आमू और सर नदियों के बीच का प्रदेश, मावराउन्नहर, में केश या शहर-ए-सब्ज नामक स्थान में हुआ था। उनके पूर्वजो ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अत: तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ। वह बहुत ही प्रतिभावान्‌ और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। महान्‌ मंगोल विजेता जंगेज़ खाँ और सिकंदर की तरह विश्वविजय की कामना रखते था।[2]

सन् 1369 में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर उन्होंने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया और इसके बाद उन्होंने पूरी शक्ति के साथ दिग्विजय पर भी चढ़ाई करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। चंगेज खाँ की पद्धति पर ही उन्होंने अपनी सैनिक व्यवस्था कायम की और चंगेज की तरह ही उसने क्रूरता और निष्ठुरता के साथ दूर-दूर के देशों पर आक्रमण कर उन्हें तहस नहस किया।

1380 और 1387 के बीच उन्होंने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर अधिपत्य स्थापित किया। इन विजयों से उत्साहित होकर अब उन्होंने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। जबकि अमीर और सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उन्होंने इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके बाद अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।[3]

मूर्तिपूजा का विध्वंस तो आक्रमण का बहाना मात्र था। वस्तुत: वह भारत के स्वर्ण से आकृष्ट हुआ था। भारत की महान‌ समृद्धि और वैभव के बारे में उन्होंने बहुत कुछ बातें सुन रखी थीं। अत: भारत की दौलत लूटने के लिये ही उन्होंने आक्रमण की योजना बनाई थी। उसे आक्रमण का बहाना ढूँढ़ने की अवश्यकता भी नहीं महसूस हुई। उस समय दिल्ली की तुगलुक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण शोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूर को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर प्रदान दिया।

1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोते पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिये रवाना किया। उन्होंने मुलतान पर घेरा डाला और छ: महीने बाद उसपर अधिकार कर लिया।

अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिये रवाना हुआ और सितंबर में उन्होंने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुलतान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलुंबा नगर पहुँचे। उन्होंने इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुलतान और भटनेर पर कब्जा किया। भटनेर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को जीतते और निवासियों को कत्ल तथा कैद करते हुए दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उन्होंने एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया।

पानीपत के पास निर्बल तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसम्बर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबिला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमूद गुजरात की तरफ चला गया और उनके वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा।[4]

दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा-खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों को बेभाव कत्ल किया गया या बंदी बनाया गया। पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। भारत से जो कारीगर वह अपने साथ ले गया उनसे उन्होंने समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध उसकी स्वनियोजित जामा मस्जिद है।[4]

तैमूर भारत में केवल लूट के लिये आया था। उसकी इच्छा भारत में रहकर राज्य करने की नहीं थी। अत: 15 दिन दिल्ली में रुकने के बाद वह स्वदेश के लिये रवाना हो गया। 9 जनवरी 1399 को उसने मेरठ पर चढ़ाई की और नगर को लूटा तथा निवासियों को कत्ल किया। इसके बाद वह हरिद्वार पहुंचा और शिवालिक पहाड़ियों से होकर वह 16 जनवरी को कांगड़ा पहुंचा और उसपर कब्जा किया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा खसोटा गया और वहाँ के असंख्य निवासियों को कत्ल किया गया। इस प्रकार भारत के जीवन, धन और संपत्ति को अपार क्षति पहुँचाने के बाद 19 मार्च 1399 को पुन: सिंधु नदी को पार कर वह भारत से अपने देश को लौट गया।

भारत पर आक्रमण

[संपादित करें]
तैमूर का भारत पर आक्रमण

1398 ई. में तैमूर का भारत पर भयानक बर्बर आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सख्ती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-

हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर मूर्तिपूजक हिन्दुओं के विरुद्ध जिहाद करना है। जिससे इस्लाम की सेना भी हिन्दुओं की दौलत, ग़ुलाम और महिलाओं को लूटकर ले जा सके।

काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों और बुजुर्गों को कत्ल और जवान स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में दस हजार लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू पुरुष, बुजुर्ग महिलाएं कत्ल कर दिये गये। उनकी जवान स्त्रियां, बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों और बुजुर्ग महिलाओं को कत्ल कर दिया गया, जवान स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।'

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संख्या एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-

इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजक काफिर कत्ल कर दिये गये।

इस प्रकार के पशुवत व्यहवार का कोई अन्य उदाहरण नहीं मिलता। तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं। उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।तुगलक वंश के अंतिम शासक नासिरूद्दीन महमूद के समय (1394-1414ई•) सन् 1398 ई में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया यह आक्रमण तुगलक वंश के लिए घातक सिद्ध हुआ । जिससे तुगलक वंश का सर्वनाश हो गया।

भारत से लौटने के बाद तैमूर ने सन्‌ 1400 में अनातोलिया पर आक्रमण किया और 1402 में अंगोरा के युद्ध में ऑटोमन तुर्कों को बुरी तरह से पराजित किया। सन्‌ 1405 में जब वह चीन की विजय की योजना बनाने में लगा था, उस समय उसकी मृत्यु साधारण जुखाम से हो गई।[5]

तैमूर की विरासत मिली-जुली है। जबकि मध्य एशिया उसके शासनकाल में फला-फूला, अन्य स्थानों, जैसे बगदाद, दमिश्क, दिल्ली और अन्य अरब, जॉर्जियाई, फारसी, और भारतीय शहरों को बर्खास्त कर दिया गया और नष्ट कर दिया गया और उनकी आबादी का नरसंहार किया गया। वह अधिकांश एशिया में नेस्टोरियन ईसाई पूर्व का चर्च के प्रभावी विनाश के लिए जिम्मेदार थे। इस प्रकार, जबकि तैमूर अभी भी मुस्लिम मध्य एशिया में एक सकारात्मक छवि बरकरार रखते है, अरब, इराक, फारस और भारत में कई लोगों द्वारा उसकी बुराई की जाती है, जहां उनके कुछ सबसे बड़े अत्याचार किए गए थे। हालांकि, इब्न खलदुन तैमूर की प्रशंसा करते है कि उसने अधिकांश मुस्लिम दुनिया को एकजुट किया, जबकि उस समय के अन्य विजेता नहीं कर सके।[6] मध्य पूर्व का अगला महान विजेता, नादिर शाह, तैमूर से बहुत प्रभावित था और उसने तैमूर की विजय और युद्ध रणनीतियों को स्वयं के अभियानों में लगभग फिर से लागू किया। तैमूर की तरह, नादिर शाह ने दिल्ली को भी बर्खास्त करने के साथ-साथ कोकेशिया, फारस, और मध्य एशिया पर भी विजय प्राप्त की।

तैमूर के अल्पकालिक साम्राज्य ने ट्रान्सोक्सियाना में तुर्को-फ़ारसी परंपरा को भी मिलाया, और अधिकांश क्षेत्रों में जिसे उन्होंने अपने जागीर में शामिल किया, फ़ारसी बन गया। प्राथमिक भाषा प्रशासन और साहित्यिक संस्कृति (दीवान), जातीयता की परवाह किए बिना।[7]इसके अलावा, उनके शासनकाल के दौरान, तुर्किक साहित्य में कुछ योगदान लिखे गए, जिसके परिणामस्वरूप तुर्किक सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तार और विकास हुआ। चगताई तुर्किक का एक साहित्यिक रूप फारसी के साथ-साथ एक सांस्कृतिक और आधिकारिक भाषा दोनों के रूप में प्रयोग में आया।[8]

आमिर तैमूर और उनकी सेनाएं गोल्डन होर्डे, खान तोखतमिश के खिलाफ आगे बढ़ती हुई।

तैमूर ने वस्तुतः पूर्व का चर्च को नष्ट कर दिया, जो पहले ईसाई धर्म की एक प्रमुख शाखा थी, लेकिन बाद में बड़े पैमाने पर एक छोटे से क्षेत्र में सीमित हो गई जिसे अब असीरियन त्रिभुज के रूप में जाना जाता है।[9]

तैमूर अपनी मृत्यु के बाद सदियों तक यूरोप में एक अपेक्षाकृत लोकप्रिय व्यक्ति बन गया, मुख्यतः ओटोमन सुल्तान बेयज़ीद पर उनकी जीत के कारण। उस समय तुर्क सेनाएं पूर्वी यूरोप पर आक्रमण कर रही थीं और विडंबना यह है कि तैमूर को एक सहयोगी के रूप में देखा जाता था।

उज्बेकिस्तान में तैमुर की मूर्ति। पृष्ठभूमि में शहरिसबज़ में उनके ग्रीष्मकालीन महल के खंडहर हैं।

उज़्बेकिस्तान में तैमूर को आधिकारिक तौर पर एक राष्ट्रीय नायक के रूप में मान्यता प्राप्त है। ताशकंद में उनका स्मारक अब उस स्थान पर है जहां कार्ल मार्क्स की मूर्ति कभी खड़ी थी।

मुहम्मद इकबाल, ब्रिटिश भारत में एक दार्शनिक, कवि और राजनीतिज्ञ, जिन्हें व्यापक रूप से पाकिस्तान आंदोलन से प्रेरित माना जाता है,[10] 'ड्रीम ऑफ तैमूर' नामक एक उल्लेखनीय कविता की रचना की, कविता स्वयं अंतिम मुगल सम्राट, बहादुर शाह द्वितीय की प्रार्थना से प्रेरित थी।:[उद्धरण चाहिए]

शरीफ हिजाज़ अपने विश्वास के विभाजनकारी सांप्रदायिक विभाजन के कारण पीड़ित है, और लो! उस युवा तातर (तैमूर) ने साहसपूर्वक भारी विजय की विशाल जीत की फिर से कल्पना की है।

1794 में, सैक डीन महोमेद ने अपनी यात्रा पुस्तक द ट्रेवल्स ऑफ डीन महोमेट प्रकाशित की। पुस्तक जंगेज़ खान, तैमूर और विशेष रूप से पहले मुगल सम्राट, बाबर की प्रशंसा के साथ शुरू होती है। वह तत्कालीन अवलंबी मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय पर महत्वपूर्ण विवरण भी देता है।

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. "Counterview: Taimur's actions were uniquely horrific in Indian history". मूल से 9 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 नवंबर 2017.
  2. Webdunia. "तैमूर लंग क्रूर लुटेरा और चोर था, जानिए भारत पर किए अत्याचार की कहानी". hindi.webdunia.com. मूल से 19 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-17.
  3. "तैमूर लंग का इतिहास, Taimur lang ka itihas, Who was Taimur Lang". hindi.speakingtree.in. मूल से 3 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-18.
  4. Richa (2016-12-21). "जिसके नाम पर मचा है हंगामा, आखिर कौन था वो तैमूरलंग". https://hindi.oneindia.com. मूल से 15 फ़रवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-19. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  5. "अपाहिज थे तैमूरलंग, लेकिन जीता जहां". BBC News हिंदी. मूल से 30 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-17.
  6. Frances Carney Gies (September–October 1978). "The Man Who Met Tamerlane". Saudi Aramco World. 29 (5). मूल से 8 July 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 July 2011.
  7. Manz 1999, पृ॰ 109"In Temür's government, as in those of most nomad dynasties, it is impossible to find a clear distinction between civil and military affairs, or to identify the Persian bureaucracy as solely civil or the Turko-Mongolian solely with military government. In fact, it is difficult to define the sphere of either side of the administration and we find Persians and Chaghatays sharing many tasks. (In discussing the settled bureaucracy and the people who worked within it I use the word Persian in a cultural rather than ethnological sense. In almost all the territories which Temür incorporated into his realm Persian was the primary language of administration and literary culture. Thus the language of the settled 'diwan' was Persian and its scribes had to be thoroughly adept in Persian culture, whatever their ethnic origin.) Temür's Chaghatay emirs were often involved in civil and provincial administration and even in financial affairs, traditionally the province of Persian bureaucracy."
  8. Roy, Olivier (2007). The new Central Asia. I. B. Tauris. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84511-552-4.
  9. "History of the Nestorians".
  10. "Iqbal'S Hindu Relations". The Telegraph. Calcutta, India. 30 June 2007. मूल से 11 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 अगस्त 2021.

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]