वृत्र
वृत्र प्राचीन वैदिक धर्म में एक असुर था जो एक सर्प या अझ़दहा (ड्रैगन) भी था। संस्कृत में वृत्र का अर्थ 'ढकने वाला' होता है। इसका एक अन्य नाम 'अहि' भी था जिसका अर्थ 'साँप' होता है और जो अवस्ताई भाषा में 'अज़ि' और 'अझ़ि' के रूपों में मिलता है। वेदों में वृत्र एक ऐसा अझ़दहा है जो नदियों का मार्ग रोककर सूखा पैदा कर देता है और जिसका वध इन्द्र करते हैं।[1] कुछ वर्णनों में इसके तीन सर दर्शाए गए हैं।[2]
रामायण में वृत्रासुर कथा
[संपादित करें]एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, "हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है। इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?"
बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, "महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है। आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?"
भरत के युक्तियुक्त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, "भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।"
तत्पश्चात लक्ष्मण बोले, "हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये। महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अश्वमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।"
श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, "प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया। वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता। यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।
"देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके। भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्ति की हत्या करके भारी पाप किया है। यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्थान में जाकर प्रायश्चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु! वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये। यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्ति प्राप्त की।"
सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित कथा
[संपादित करें]एक कथा वृत्रासुर की है जिसको मुर्ख लोगो ने ऐसा धर के लौटा है कि वह प्रमाण और युक्ति इन दोनों से विरुद्ध जा पड़ी है।
'त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को निगल लिया। तब सब देवता लोग बड़े भय युक्त होकर विष्णु के समीप गये, और विष्णु ने उसके मारने का उपाय बतलाया कि --मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट हो जाऊँगा। तुम लोग, उस फेन को उठाकर वृत्रासुर के मारना, वह मर जायेगा।'
यह पागलों की सी बनाई हुई पुराणग्रन्थों की कथा सब मिथ्या है।श्रेष्ठ लोगो को उचित है कि इनको कभी न मानें। देखो सत्यग्रन्थों में यह कथा इस प्रकार लिखी है कि --
(इन्द्रस्य नु०) यहाँ सूर्य का इन्द्र नाम है। उसके किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जोकि परम ऐश्वर्य होने का हेतु बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथ्वी में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब पृथ्वी में फैला देता है। फिर उससे अनेक बड़ी-२ नदी परिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत और मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिए होती हैं। जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथ्वी में गिरा देता है, तब वह पृथ्वी में सो जाता है।।१।। [3]
फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिसको सूर्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है। वैसे ही वह मेघ को भी बिन्दु-बिन्दु करके पृथ्वी में गिरा देता है और उसके शरीररूप जल सिमट-सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र को ऐसे प्राप्त होते हैं, कि जैसे अपने बछड़ों से गाय दौड़ के मिलती हैं।।२।।
जब सूर्य उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथ्वी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई मनुष्य आदि के शरीर को काट काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथ्वी पर मृतक के समान शयन करने वाला हो जाता है।।३।।
'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)--वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य है,सूर्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।
वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है।।५।।
वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता। इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य ही की विजय होती है।
(वृत्रो ह वा०) जब जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उसको सूर्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह अशुद्ध भूमि , सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।(उपर्य्युपय्यॅति०)--अर्थात सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं।
वायु और सूर्य का नाम इन्द्र है। वायु आकाश में और सूर्य प्रकाशस्थान में स्थित है। इन्हीं वृत्रासुर और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य का विजय निःसंदेह होता है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ दयानंद यजुर्वेदभाष्य भास्कर: महर्षि दयानंद के वेद-भाष्य Archived 2015-04-06 at the वेबैक मशीन, सुदर्शनदेव आचार्य, दयानंद सरस्वती, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, १९७४
- ↑ The Dragon Keeper's Handbook: Including the Myth and Mystery, Care and Feeding, Life and Lore of These Fiercely Splendid Creatures Archived 2015-04-06 at the वेबैक मशीन, Shawn MacKenzie, Llewellyn Worldwide, 2011, ISBN 978-0-7387-2785-1, ... In Vedic India we find three-headed Vritra, a divine Chaos Dragon and, some would argue, a descendent of Tiamat; certainly a Dragon made in her wild mold. But where Tiamat was creative, Vritra was willfully destructive ...
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 28 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 दिसंबर 2016.