प्राचीन भारत
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मानव के उदय से लेकर दसवीं सदी तक के भारत का इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है।[1]
प्राचीन भारतीयों इतिहास की जानकारी के साधन
[संपादित करें]1.पुरातात्विक स्त्रोत __इसके अंतर्गत अभिलेख, सिक्का,स्मारक, भवन और चित्र आदि आते है,यह उत्खनन से प्राप्त किया जाता है।पुरातात्विक स्त्रोत साहित्यिक स्त्रोत से अधिक प्रमाणित है।
2.साहित्यिक स्त्रोत __ इसके अंतर्गत वेद, पुराण अरंन्यंक ,ऊपनिसद,महाकाव्य, जातक,पिटक आदि आते है।
3.विदेशी यात्रीयो का वर्णन __विदेशी यात्रियो के वर्णन से तार्त्पय है कि जो विदेशी भारत मे घूमने आए वह यहाॅ के बारे कुछ लिखकर गए जैसे:_ फाहइयान ने अशोक के छः स्तंभ के बारे जानकारी लेकर गया।
पाषाण युग
[संपादित करें]पाषाण युग से तात्पर्य ऐसे काल से है जब लोग पत्थरों पर आश्रित थे। पत्थर के औज़ार, पत्थर की गुफा ही उनके जीवन के प्रमुख आधार थे। यह मानव सभ्यता के आरंभिक काल में से है जब मानव आज की तरह विकसित नहीं था। इस काल में मानव प्राकृतिक आपदाओं से जूझता रहता था और शिकार तथा कन्द-मूल फल खाकर अपना जीवन बसर करता था।
पुरापाषाण युग
[संपादित करें]हिमयुग का अधिकांश भाग पुरापाषाण काल में बीता है। भारतीय पुरापाषाण युग को औजारों, जलवायु परिवर्तनों के आधार पर तीन भागों में बांटा जाता है -
- आरंभिक या निम्न पुरापाषाण युग (25,00,000 ईस्वी पूर्व - 100,000 ई. पू.)
- मध्य पुरापाषाण युग (1,00,000 ई. पू. - 40,000 ई. पू.)
- उच्च पुरापाषाण युग (40,000 ई.पू - 10,000 ई.पू.)
आदिम मानव के जीवाश्म भारत में नहीं मिले हैं। महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान पर मिले तथ्यों से अंदेशा होता है कि मानव की उत्पत्ति 14 लाख वर्ष पूर्व हुई होगी। यह बात लगभग सर्वमान्य है कि अफ़्रीका की अपेक्षा भारत में मानव बाद में बसे। यद्दपि यहां के लोगों का पाषाण कौशल लगभग उसी तरह विकसित हुआ जिस तरह अफ़्रीका में। इस समय का मानव अपना भोजन कठिनाई से ही बटोर पाता था। वह ना तो खेती करना जानता था और ना ही घर बनाना। यह अवस्था 9000 ई.पू. तक रही होगी।
पुरापाषाण काल के औजार छोटानागपुर के पठार में मिले हैं जो 1,00,000 ई.पू. तक हो सकते हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में 20,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. के मध्य के औजार मिले हैं। इनके साथ हड्डी के उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले की बेलन घाटी में जो पशुओं के अवशेष मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि बकरी, भेड़, गाय, भैंस इत्यादि पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार और खाद्य संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कन्द मूल खाकर जीने वालों का जिक्र है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक काल तक पर्वतों और गुफाओं में रहते आए हैं।
नवपाषाण युग
[संपादित करें]भारत में नवपाषाण युग के अवशेष सम्भवतः 6000 ई०पू० से 1000 ई०पू के है।विकास कि यह अवधि भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ देर से आयी क्योकि ऐसा माना jata है कि विश्व के बडे भूभाग( south west Asia) में यह युग 8000-7000 ई०पू० के आसपास पनपा, यहाँ से नील घाटी (Egypt) होते हुए यूरोप पहुंचा। इस युग में मानव पत्थर कि बनी हाथ कि कुल्हाड़ियां आदि औजार पत्थर को छिल घीस और चमकाकर तैयार करता था, उत्तरी भारत में नवपाषाण युग का स्थल बुर्जहोम (कश्मीर) में पाया गया है। भारत में नव पाषाण काल के प्रमुख चार स्थल है
ताम्र पाषाण युग
[संपादित करें]नवपाषाण युग का अन्त होते होते धातुओं का प्रयोग शुरू हो गया था। ताम्र पाषाणिक युग में तांबा तथा प्रस्तर के हथियार ही प्रयुक्त होते थे। इस समय तक लोहा या कांसे का प्रयोग आरम्भ नहीं हुआ था। भारत में ताम्र पाषाण युग की बस्तियां दक्षिण पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण पूर्वी भारत में पाई गई है। और सारे भारत में जंगल ही था
कांस्य युग और सिंधु घाटी सभ्यता
[संपादित करें]बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक इतिहासकारों की यह मान्यता थी कि वैदिक सभ्यता भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है। परन्तु सर दयाराम साहनी के नेतृत्व में १९२१ में जब हड़प्पा (पंजाब के माँन्टगोमरी जिले में स्थित) की खुदाई हुई तब इस बात का पता चला कि भारत की सबसे पुरानी सभ्यता वैदिक नहीं वरन सिन्धु घाटी की सभ्यता है। अगले साल अर्थात १९२२ में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो (सिन्ध के लरकाना जिले में स्थित) की खुदाई हुई। हड़प्पा टीले के बारे में सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने १९२६ में उल्लेख किया था। मोहनजोदड़ो को सिन्धी भाषा में मृतकों का टीला कहा जाता है। १९२२ में राखालदास बनर्जी ने और इसके बाद १९२२ से १९३० तक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में यहां उत्खनन कार्य करवाया गया।
सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसापूर्व से 1750 ईसापूर्व तक) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8000 वर्ष पुरानी है। यह हड़प्पा सभ्यता और 'सिंधु-सरस्वती सभ्यता' के नाम से भी जानी जाती है। इसका विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर २०१४ में भिर्दाना को अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया सिंधु घाटी सभ्यता का। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान् थे।
मोहनजोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है।
उत्पत्ति
[संपादित करें]इतनी विस्तृत सभ्यता होने के बावजूद भी इसकी उत्पत्ति को लेकर आज भी विद्वानों में मतैक्य का अभाव है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हड़प्पा संस्कृति के जितने भी स्थलों की अब तक खुदाई हुई है वहां सभ्यता के विकास अनुक्रम का चिन्ह स्पष्ट नही मिलता है अर्थात इस सभ्यता के अवशेष जहां कहीं भी मिले हैं अपनी पूर्ण विकसित अवस्था में ही मिले हैं।
सर जॉन मार्शल, गार्डन चाईल्ड, मार्टीमर व्हीलर आदि इतिहासकारों की मान्यता है कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति में विदेशी तत्व का हाथ रहा है। इन इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की शाखा सुमेरिया की सभ्यता की प्रेरणा से हुई है। इन दोनो सभ्यताओं में कुछ समानताएं भी देखने को मिलती है जो इस प्रकार है -
- (१) दोनो ही सभ्यता नगरीय है।
- (२) दोनो ही सभ्यताओं के निवासी कांसे और तांबे के साथ साथ पाषाण के लघु उपकरणों का प्रयोग करते थे।
- (३) दोनों ही सभ्यताओं के भवन निर्माण में कच्चे और पक्के दोनो ही प्रकार के ईंटों का प्रयोग हुआ है।
- (४) दोनो को लिपि का ज्ञान था।
इन्ही समानताओं के आधार पर व्हीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश बताय़ा था। लेकिन इन समानताओं के बावजूद कुछ ऐसी असमानताएं भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना सुमेरिया की सभ्यता से अधिक सुव्यवस्थित है। दोनो ही सभ्यताओं में आम उपयोग की चीजें काफी भिन्न हैं जैसे बर्तन, उपकरण, मूर्तियां, मुहरें आदि। फिर दोनों ही सभ्यताओं के लिपि में भी अंतर है। जहां सुमेरियाई लिपि में ९०० अक्षर हैं वहीं सिन्धु लिपि में केवल ४०० अक्षर हैं। इन विभिन्नताओं के होते हुए दोनो सभ्यताओं को समान मानना समुचित नहीं लगता है|
वैदिक काल
[संपादित करें]सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य (Aryan) अथवा वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 5000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच में मानत है|
उत्तरवैदिक काल
[संपादित करें](१०००-६०० ई०पू०)
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिन्धु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे - काशी, कोसल, विदेह (मिथिला), मगध और अंग।
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ग॓गा और यमुना नदी का उल्लेख केवल एक बार हुआ है। इस काल में कौसाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया। इस काल में वर्ण व्यासाय के बजाय जन्म के आधार पे निर्धारित होने लगे।
वैदिक साहित्य
[संपादित करें]- वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
- वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।
- वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।
ऋग्वेद
[संपादित करें]1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है।गायत्री मंत्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल में उल्लेखित है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है।
यजुर्वेद
[संपादित करें]- यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्यवीद्या का उल्लेख है।
- यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।
- इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।
- इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
- यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।
- यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
- कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।
- यह 40 अध्याय में विभाजित है।
- इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।
सामवेद
[संपादित करें]सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
- इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।
- सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।
- सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
अथर्व वेद
[संपादित करें]- इस वेद में रहस्यमई विद्याओं, चमत्कार, जादू टोने, आयुर्वेद जड़ी बूटियों का वर्णन मिलता है।
- इसमें कुल 20 अध्याय में 5687 मंत्र हैं।
- अथर्ववेद आठ खंड में विभाजित है। इसमें भेषज वेद और धातु वेद दो प्रकार मिलते हैं।
बौद्ध और जैन धर्म
[संपादित करें]ईसा पूर्व छठी सदी तक वैदिक कर्मकांडों की परंपरा का अनुपालन कम हो गया था। उपनिषद ने जीवन की आधारभूत समस्या के बारे में स्वाधीनता प्रदान कर दिया था। इसके फलस्वरूप कई धार्मिक पंथों तथा संप्रदायों की स्थापना हुई। उस समय ऐसे किसी 62 सम्प्रदायों के बार में जानकारी मिलती है। लेकिन इनमें से केवल 2 ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय तक प्रभावित किया - जैन और बौद्ध।
जैन धर्म पहले से ही विद्यमान था। दोनो श्रमण संस्कृति पर आधारित है। वैदिको ने श्रमण संस्कृति को बाद में उपनिषदो में अपनाया।
जैन धर्म
[संपादित करें]जैन धर्म के दो तीर्थकरों - ऋषभनाथ तथा अरिष्टनेमि- का उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि हड़प्पा की खुदाई में जो नग्न धड़ की मूर्ति मिली है वो किसी तीर्थकर की है। पार्श्वनाथ तेइसवें तीर्थकर तथा भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थकर थे। वर्धमान महावीर जो कि जैनों के सबसे प्रमुख तथा अन्तिम तीर्थकर थे, का जन्म 540 ईसापूर्व के आसपास वैशाली के पास कुंडग्राम में हुआ था। 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य (परम ज्ञान) प्राप्त हुआ।
महावीर ने पार्श्वनाथ के चार सिद्धांतों को स्वीकार किया -
- अहिंसा - जीव हत्य न करना
- अमृषा - झूठ न बोलना
- अस्तेय - चोरी न करना
- अपरिग्रह - सम्पत्ति इकठ्ठा न करना
इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना पांचवा सिद्धांत भी अपने उपदेशों में जोड़ा -
- ब्रह्मचर्य - इंद्रियों पर नियंत्रण
इस सम्प्रदाय के दो अंग हैं - श्वेताबर तथा दिगंबर
बौद्ध धर्म
[संपादित करें]जैन धर्म की तरह इसका मूल भी एक उच्चवर्गीय क्षत्रिय परिवार से था। गौतम नाम से जन्में महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसापूर्व में शाक्यकुल के राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। इन्होने भी सांसारिक जीवन जीने के बाद एक दिन (या रात) अचानक से अपना गार्हस्थ छोड़कर सत्य की खोज में चल पड़े।
बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य समाहित हैं -
- दुख
- दुख समुद्दय
- दुख निरोध
- दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा।
उन्होंने अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया जिसका पालन करके मनुष्य पुनर्जन्म के बंधन से दूर हो सकता है -
- सम्यक वाक्
- सम्यक कर्म
- सम्यक आजीविका
- सम्यक व्यायाम
- सम्यक स्मृति
- सम्यक समाधि
- सम्यक संकल्प
- सम्यक दृष्टि
बौद्ध धर्म का प्रभाव भारत के बाहर भी हुआ। अफ़ग़ानिस्तान (उस समय फ़ारसी शासकों के अधीन), चीन, जापान तथा श्रीलंका के अतिरिक्त इसने दक्षिण पूर्व एशिया में भी अपनी पहचान बनाई।
यूनानी तथा फारसी आक्रमण
[संपादित करें]उस समय उत्तर पश्चिमी भारत में कोई खास संगठित राज्य नहीं था। लगातार शक्तिशाली हो रहे फ़ारसी साम्राज्य की नज़र इधर की ओर भी गई। हंलांकि अब तक फ़ारस पर राज कर रहे चन्द्र राजा यूनान, पश्चिमी एशिया तथा मध्य एशिया की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने भारत की अनदेखी नहीं की थी। शक्तिशाली अजमीड/हखामनी (Achaemenid) शासकों की निगाह इस क्षेत्र पर थी और Kuru-s कुरुस साईरस (558ईसापूर्व - 530 ईसापूर्व) ने हिंदूकुश के दक्षिण के रजवाड़ो को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद दारयवाहु (डेरियस, 522-486 ईसापूर्व) के शासनकाल में फ़ारसी शासन के विस्तार के साक्ष्य मिलते हैं। इसके उत्कीर्ण लेखों में दो ज़ग़ह हिन्दू को इसके राज्य का हिस्सा बताया गया है। इस संदर्भ में हिन्दू शब्द का सही अर्थ बता पाना कठिन है पर इसका तात्पर्य किसा ऐसे प्रदेश से अवश्य है जो सिंधु नदी के पूर्व में हो।
ईसापूर्व चौथी सदी में जब यूनानी और फ़ारसी शासक पश्चिम एशिया (आधुनिक तुर्की का क्षेत्र) पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मकदूनिया के राजा सिकंदर के हाथों हखामनी शासक डेरियस तृतीय के हारने के पश्चात स्थिति में परिवर्तन आ गया। सिकंदर पश्चिम एशिया जीतने के बाद अरब, मिस्र तथा उसके बाद फ़ारस के केन्द्र (ईरान) तक पहुंच गया। इतने से भी जब उसको संतोष नहीं हुआ तो वो अफ़गानिस्तान होते हुए 326 ईसा पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत पहुँच गया।
सिकंदर के भारत आने के बारे में कोई भारतीय स्रोत उपलब्ध नहीं है। सिकंदर के विजय अभियान की बात केवल यूनानी तथा रोमन स्रोतों में उपलब्ध है तथा उन्हें सत्य के करीब मान कर ये सब लिखा गया है। यूनानी ग्रंथ तो सिकंदर के भारत अभियान का विस्तार से वर्णन करते हैं पर वे कौटिल्य के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखते हैं।
सिकंदर जब भारत पहुंचा तो पंजाब (अविभाजित पंजाब) में रावलपिंडी के पास का राजा उसकी सहायता के लिए पहँच गया। अन्य लगभग सभी राजाओं ने सिन्दर का डटकर मुकाबला किया पर वे सिकन्दर की अनुभवी सेनाओं से हार गए। यूनानी लेखकों ने इन राजाओं के वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसके बाद झेलम और चिनाब के बीच स्थित प्रदेश का राजा पोरस (जो कि पौरव का यूनानी नाम लगता है) ने सिकंदर का वीरता पूर्वक सामना किया। 326 ईस्वी पूर््व का यह झेलम नदी के तट पर हुआ पोरस व सिकंदर के मध्य का युद्ध हाइडेस्पीच का युद्ध कहलाता है ।कहा जाता है कि युद्ध हारने के बाद जब पोरस बन्दी बनकर सिकन्दर के सामने प्रस्तुत हुआ तो उससे पूछा गया - तुम्हारे साथ कैसा सुलूक (वर्ताव) किया जाय। तो उसने साहसी उत्तर दिया -" जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है "। उसके उत्तर पर मुग्ध होकर सिकन्दर ने उसका हारा हुआ प्रदेश लौटा दिया। इसके बाद जब उसे भारत के वीर योद्धा चन्द्रगुप्त मोर्य(मगध का नंद राजा-चंद्रगुप्त नही) की विशाल सेना का सामना करना था तब भय से ग्रसित सेना को लेकर सिकन्दर आगे नहीं बढ़ सका और वापस लौट गया।
महाजनपद
[संपादित करें]बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय के अनुसार कुल सोलह (16) महाजनपद थे - अवन्ति,अश्मक या अस्सक, अंग, कम्बोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, वज्जि या वृजि, वत्स या वंश, पांचाल, मगध, मत्स्य या मच्छ, मल्ल, सुरसेन।
इनमें सत्ता के लिए संघर्ष चलता रहता था।
महापद्मनंद नंदमौर्य साम्राज्य
[संपादित करें]ईसापूर्व छठी सदी के प्रमुख राज्य थे - मगध, कोसल, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत। चौथी सदी में चन्द्रगुप्त मौर्य ( चंद्र नंद ) मोत्तर भारत को यूनानी शासकों से मुक्ति दिला दी। इसके बाद उसने मगध की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो उस समय नंदों के शासन में था। जैन ग्रंथ परिशिष्ठ पर्वन में कहा गया है कि सम्राट धनानंद ने चाणक्य को अपने राजमहल से बाहर निकाल दिया इसलिए चंद्रगुप्त मौर्य को बड़का कर अपने ही बड़े भाई धनानंद को मरवा दिया चंद्र नंद से चंद्रगुप्त मौर्य बन गया इसके बाद चन्द्रगुप्त ने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के क्षत्रप सेल्यूकस को हाराया था जिसके फलस्वरूप उसने हेरात, कंदहार, काबुल तथा बलूचिस्तान के प्रांत चंद्रगुप्त को सौंप दिए थे।
चन्द्रगुप्त के बाद बिंदुसार के पुत्र अशोक ने मौर्य साम्राज्य को अपने चरम पर पहुँचा दिया। कर्नाटक के चित्तलदुर्ग तथा मास्की में अशोक के शिलालेख पाए गए हैं। चुंकि उसके पड़ोसी राज्य चोल, पांड्य या केरलपुत्रों के साथ अशोक या बिंदुसार के किसा लड़ाई का वर्णन नहीं मिलता है इसलिए ऐसा माना जाता है कि ये प्रदेश चन्द्रगुप्त के द्वारा ही जीता गया था। अशोक के जीवन का निर्णायक युद्ध कलिंग का युद्ध था। इसमें उत्कलों से लड़ते हुए अशोक को अपनी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के प्रति ग्लानि हुई और उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया। फिर उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी करवाया।
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज़ , सेल्यूकस के द्वारा उनके दरबार में भेजा गया। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य तथा उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का वर्णन किया है। इस दौरान कला का भी विकास हुआ महापद्मा नंद
मौर्यों के बाद
[संपादित करें]मौर्यों के पतन के बाद शुंग राजवंश ने सत्ता सम्हाली। ऐसा माना जाता है कि मौर्य राजा वृहदृथ के सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर दी थी जिसके बाद शुंग वंश की स्थापना हुई। शुंगों ने 187 ईसापूर्व से 75 ईसापूर्व तक शासन किया। इसी काल में महाराष्ट्र में सातवाहनों का और दक्षिण में चेर, चोल और पांड्यों का उदय हुआ। सातवाहनों के साम्राज्य को आंध्र भी कहते हैं जो अत्यन्त शक्तिशाली था।
पुष्यमुत्र के शासनकाल में पश्चिम से यवनों का आक्रमण हुआ। इसी काल के माने जाने वाले वैयाकरण पतंजलि ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है। कालिदास ने भी अपने मालविकाग्निमित्रम् में वसुमित्र के साथ यवनों के युद्ध का चर्चा किया है। इन आक्रमणकारियों ने भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया। कुछ प्रमुख भारतीय-यूनानी शासक थे - यूथीडेमस, डेमेट्रियस तथा मिनांडर। मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था तथा उसका प्रदेश अफगानिस्तान से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था।
इसके बाद पह्लवों का शासन आया जिनके बारे में अधिक जानकारी उपल्ब्ध नहीं है। तत्पश्चात शकों का शासन आया। शक लोग मध्य एशिया के निवासी थे जिन्हें यू-ची नामक कबीले ने उनके मूल निवास से खदेड़ दिया गया था। इसके बाद वे भारत आए। इसके बाद यू-ची जनजाति के लोग भी भारत आ गए क्योंकि चीन की महान दीवार के बनने के बाद मध्य एशिया की परिस्थिति उनके अनूकूल नहीं थी। ये कुषाण कहलाए। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। कनिष्क ने ७८ ईसवी से 101 ईस्वी तक राज किया।
समकालीन दक्षिण भारत
[संपादित करें]दक्षिण में चेर, पांड्य तथा चोल के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा था। संगम साहित्य इस समय की सबसे अमूल्य धरोहर थी। तिरूवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल तमिल भाषा का प्राचीनतम ग्रंघ माना जाता है। धार्मिक सम्प्रदायों का प्रचलन था और मुख्यतः वैष्णव, शैव, बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों के अनुयायी थे।
गुप्त काल
[संपादित करें]सन् ३२० ईस्वी में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना जिसने गुप्त वंश की नींव डाली। इसके बाद समुद्रगुप्त (३४० इस्वी), चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (४१३-४५५ इस्वी) और स्कंदगुप्त शासक बने। इसके करीब १०० वर्षों तक गुप्त वंश का अस्तित्व बना रहा। ६०६ इस्वी में हर्ष के उदय तक किसी एक प्रमुख सत्ता की कमी रही। इस काल में कला और साहित्य का उत्तर तथा दक्षिण दोनों में विकास हुआ। इस काल का सबसे प्रतापी शासक "समुद्रगुप्त" था जिसके शासनकाल में भारत को "सोने की चिड़िया" कहा जाने लगा।
ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदी में भारतीय कला, भाषा तथा धर्म का प्रचार दक्षिणपूर्व एशिया में भी हुआ।
प्राचीन भारत के राजवंश और उनके संस्थापक
[संपादित करें]वंश | राजधनी | संस्थापक |
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कुरु वंश | हस्तिनापुर | भरत वंश (कुरु पांडु) |
हर्यक वंश | राजगृह, पाटलिपुत्र | बिम्बिसार |
शिशुनाग वंश | पाटलिपुत्र, वैशाली | शिशुनाग |
नन्द वंश | पाटलिपुत्र | महापद्मनन्द |
मौर्य वंश | पाटलिपुत्र | चंद्रगुप्त मौर्य |
शुंग वंश | विदिशा | पुष्यमित्र शुंग |
कण्व वंश | पाटलिपुत्र | वसुदेव |
सातवाहन वंश | पैठन | सिमुक |
चेदि वंश | सोत्थवती | महामोघवाहन |
हिंद-यवन | शाकल ( सियालकेट ) | डेमेट्रियस |
कुषाण वंश | पुरुषपुर पेशावर | कुजुल कडफिसेस |
कदम्ब वंश | बनवासी | मयूरशर्मन |
गंग वंश | तलकाड | कोंकणिवर्मा |
गुप्त वंश | पाटलिपुत्र | श्रीगुप्त |
मौखरी वंश | कन्नौज | ईशानवर्मा |
हूण वंश | स्यालकोट | तोरमाण |
मैत्रक वंश | वल्लभी | भट्टारक |
उत्तरगुप्त वंश | पाटलिपुत्र | कृष्णगुप्त |
गौड़ वंश | कर्णसुवर्ण, मुर्शिदाबाद | शशांक |
पुष्यभूति वंश | थानेश्वर | प्रभाकरवर्धन |
पाल वंश | मुंगेर | गोपाल |
सेन वंश | राढ़ | सामन्तसेन |
राष्ट्रकूट वंश | मान्यखेत | दन्तिवर्मन |
गुर्जर प्रतिहार वंश | कन्नौज | नागभट्ट प्रथम |
कलचुरी चेदि वंश | त्रिपुरी | कोक्कल प्रथम |
परमार वंश | धारा | कृष्णराज/ उपेन्द्र |
लोदी वंश | दिल्ली | |
महदेले लोधी वंश | मोहली | दृगपाल/महदेले |
सोलंकी वंश | अन्हिलवाड़ | मूलराज प्रथम |
चन्देल वंश | खजुराहो (महोबा) | नन्नुक |
गहड़वाल वंश | कन्नौज | चन्द्रदेव |
चौहान वंश | अजमेर | वासुदेव |
तोमर वंश | ढिल्लिका | अनंगपाल |
चालुक्य वंश (बादामी) | बादामी | पुलकेशिन प्रथम |
चालुक्य वंश (कल्याणी) | मान्यखेत | तैलप द्वितीय |
चालुक्य वंश (वेंगि) | वेंगि | विष्णुवर्धन |
पल्लव वंश | कांची | सिंहवर्मा |
चोल वंश | तंजौर, तंजावुर | विजयालय |
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- मगध के राजवंशों और शासकों की सूची
- प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं
- प्राचीन भारत में गणतंत्र
- प्राचीन भारत के वैज्ञानिक
- प्राचीन भारत में विज्ञान एवं तकनीक
- प्राचीन भारतीय कलाएँ
- प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "भारत का 20 लाख साल पुराना इतिहास देखेंगे?". अभिगमन तिथि 11 जनवरी 2018. नामालूम प्राचल
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(मदद)
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - ओम प्रकाश प्रसाद)
- प्राचीन भारत का सामाजिक और आर्थिक इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिव स्वरूप सहाय)
- A brief introduction to technological brilliance of Ancient India (इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंटिफिक हेरिटेज)
- प्राचीन भारत के वैज्ञानिक कर्णधार (गूगल पुस्तक ; लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती)
- प्राचीन भारत में रसायन का विकास (गूगल पुस्तक; लेखक - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती)
- प्राचीन भारत में दूत पद्धति (गूगल पुस्तक ; लेखक - आनन्द प्रकाश गौड़)
- श्रेण्य युग ('क्लासिकल एज' का हिन्दी अनुवाद) (गूगल पुस्तक ; लेखक - आर सी मजुमदार ; अनुवादक - शिवदान सिंह चौहान)
- भारतीय इतिहास के कुछ विषय (Archaeology & Ancient India) (गूगल पुस्तक ; लेखक - रघुनाथ राय)
- प्राचीन भारत का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - धनपति पाण्डेय)
- हिन्दू सभ्यता (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधाकुमुद मुखर्जी)