Papers by Ramnik Mohan
हमारे देश में मौजूद विविधताओं के रूप-आकार को देखते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद सवाल खड़ा होता है कि ऐसे देश में ... more हमारे देश में मौजूद विविधताओं के रूप-आकार को देखते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद सवाल खड़ा होता है कि ऐसे देश में राष्ट्रीय एकता का अर्थ और स्वरूप क्या होगा? इस सवाल का जवाब हमें अपने पिछले 76 साल के इतिहास में ही नहीं, पिछली कई सदियों के इतिहास में मिलता है, जिसे जानना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है – और इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हम इस विषय को देखेंगे तो हमारे लिए बहुत सी बातें स्पष्ट होंगी।
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इस लेख के मूल में यह विचार है कि पश्चिमी देशों में भी (जहाँ से असल में सेक्युलरिज़म का सिद्धांत आय... more इस लेख के मूल में यह विचार है कि पश्चिमी देशों में भी (जहाँ से असल में सेक्युलरिज़म का सिद्धांत आया) यह सिद्धांत तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी पूर्ण शुद्धता में लागू नहीं हो पाया है। भारत का सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य वैसे भी उन से अलग है। यहाँ राज्य और चर्च (धर्म) के बीच ऐतिहासिक रूप में वैसे संघर्ष और टकराव की स्थितियाँ नहीं रहीं जैसी कि पश्चिम में। न ही वहाँ की तरह शायद धर्म और विज्ञान के बीच द्वंद्व रहा। पश्चिम के किसी एक देश में धर्मों और मत-मतान्तरों की भी सम्भवत: वैसी बहुलता नहीं रही जैसी कि भारत में है। यह एक मुख्य कारण है कि ‘सेक्युलरिज़म’ के सवाल को यहाँ अलग अर्थ के साथ देखा जाता रहा है। हमें धर्म के प्रति, लोगों के धार्मिक विश्वासों के प्रति अपने नज़रिये पर भी विचार करना होगा।
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भारत के इतिहास से सम्बन्धित बहुत कुछ ऐसा है जो स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन उस का य... more भारत के इतिहास से सम्बन्धित बहुत कुछ ऐसा है जो स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन उस का या तो ज़िक्र ही नहीं होता और अगर होता भी है तो बस सरसरी सा। इतिहास के ऐसे ही पन्नों में से एक पन्ना है ग़दर आन्दोलन का पन्ना, जिसे हम ग़दरी बाबों का पन्ना भी कह सकते हैं। विडम्बना यह भी है कि बहुत बार हमारे अध्यापकों को भी भारत के इतिहास के इस स्वर्णिम पन्ने के बारे में जानकारी नहीं होती क्योंकि देखा यह गया है कि ‘ग़दर’ शब्द सुनते-पढ़ते ही आम तौर पर लोगों के दिमाग़ में 1857 की क्रान्ति का बिम्ब उभरता है न कि ग़दर पार्टी का जो 1857 की क्रान्ति से प्रेरित हो कर 1913 में अस्तित्व में आई और जिसे ‘ग़दर लहर’ की संज्ञा भी दी जाती है। हालाँकि इस लहर में भाग लेने वाले अधिकतर लोग पंजाब से थे, और उन में भी बड़ी संख्या सिखों की थी, कमाल की बात यह है कि इस लहर में हिस्सेदारी भारत के सब क्षेत्रों से दिखाई देती है। मसलन – चेंचैया और चम्पक रमण पिलै दक्षिण से, पाण्डुरंग खानखोजे और विष्णु गणेश पिंगले पश्चिमी भारत से, तारकनाथ दास और जितेन्द्र लाहिड़ी आदि पूर्वी भारत से, मौलवी बरकतुल्ला और परमानन्द झांसी आदि मध्य भारत से तथा तब के संयुक्त पंजाब के इलाके से हर दयाल, सोहन सिंह भकना, करतार सिंह सराभा समेत बहुत से अन्य तो थे ही। एक और मिसाल धर्म और समुदाय के हवाले से दें तो अमेरिका के गुरुद्वारा स्टॉक्टन के निर्माण की बात आई तो गुरु गोबिन्द सिंह के गुरुपर्व के दिन सिख ही नहीं हिन्दू और मुसलमान भी इस मौके पर एकत्र हुए। यूँ लगता है कि यह लहर हर लिहाज़ से मुकम्मल भारत की तस्वीर प्रस्तुत करती है।
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स्कूल में बच्चों को भाषा का ज्ञान कैसे करवाया जाए? यह सवाल विशेष तौर से शुरुआती कक्षाओं के सन्दर्... more स्कूल में बच्चों को भाषा का ज्ञान कैसे करवाया जाए? यह सवाल विशेष तौर से शुरुआती कक्षाओं के सन्दर्भ में ख़ास अहमियत रखता है। हमारा अवलोकन हमें बताएगा कि बच्चा जब स्कूल में आना शुरू करता है तो उस के पास अपनी भाषा पहले से होती है। उस के पास अपनी शब्दावली होती है जिस का प्रयोग वह प्रमुख तौर पर बोलचाल में करता है (कहते चलें कि अगर हम इस बात से सहमत हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि बच्चे का दिमाग़ उस समय एक कोरी स्लेट नहीं होता है – उस पर भाषा-ज्ञान के सन्दर्भ में बहुत कुछ अंकित हो चुका होता है )। भाषा की कक्षा में यदि हम इस बात का ध्यान रखते हुए चलें तो बच्चे के साथ आदान-प्रदान सहज होने की अधिक सम्भावना रहेगी। बच्चे के पास पहले से मौजूद शब्दावली को हम आधार बनाते हैं तो उस की रुचि और ध्यान तो हम खींच ही सकते हैं, उस का विश्वास भी जीत सकते हैं – और उस का आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं।
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This is a booklet brought out by Socially Active People's Theatre, Art and Cultural Group (SAPTRA... more This is a booklet brought out by Socially Active People's Theatre, Art and Cultural Group (SAPTRANG) and written by Rajender Singh 'Somesh', a National and State Awardee teacher, social activist and writer. SAPTRANG is an organisation working (mainly in Rohtak, Haryana) on socio-cultural issues with the aim of spreading awareness on issues of significance. The booklet takes an overview of the socio-cultural-historical situation down the centuries vis-a-vis communal harmony in what is today called Haryana.
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हम एक नज़र डाल रहे हैं इस बात पर कि भीष्म साहनी की नज़र में एक लेखक होने के अर्थ क्या हैं, लेखक के ... more हम एक नज़र डाल रहे हैं इस बात पर कि भीष्म साहनी की नज़र में एक लेखक होने के अर्थ क्या हैं, लेखक के कर्म का मर्म क्या है?
इस मसले पर भीष्म जी ने अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग समय पर कुछ न कुछ लिखा और कहा है मगर उंन की सैद्धान्तिक दृष्टि में कोई विशेष अन्तर आया प्रतीत नहीं होता – कम से कम 1978 से ले कर 2003 के बीच तो नहीं। विचार, विचारधारा, यथार्थ, कल्पना, लेखक का संवेदन, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता – रचना-प्रक्रिया में इन सब की भूमिका की ओर वे इशारा करते हैं।
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15 अगस्त का दिन हमारे लिए ख़ुशी का दिन है। मगर यह हमें उस ऐतिहासिक त्रासदी की भी याद दिलाता है जिस... more 15 अगस्त का दिन हमारे लिए ख़ुशी का दिन है। मगर यह हमें उस ऐतिहासिक त्रासदी की भी याद दिलाता है जिसे हम मुल्क के बंटवारे या विभाजन के नाम से जानते हैं। इस त्रासदी का जो असर सआदत हसन मन्टो पर पड़ा और जो असर उन की रचनाओं ने हम पर छोड़ा, वह शायद हिन्दी-उर्दू साहित्य के बाकी सब लेखकों और उन की रचनाओं के असर से बिल्कुल अलग और अनोखा है। इसी लिए मन्टो हमें विभाजन की त्रासदी पर लिखने वाले सब लेखकों के बीच अपनी मुख़्तलिफ़ पहचान के साथ खड़े दिखाई देते हैं। उस त्रासदी की दर्दनाक और शर्मनाक घटनाओं का मन्टो द्वारा किया गया चित्रण उन हालात में सरगरम और फंसे हुए इन्सान के दिलो-ओ-दिमाग़-ओ-रूह के अन्दर तक की तसवीर जैसे हमारे सामने रख देता है। उस की हैवानियत और इन्सानियत, दोनों हमारे सामने आते हैं। महसूस होता है कि जैसे लेखक ने इन दोनों रूपों को आत्मसात कर लिया है, एक-एक किरदार को अन्दर तक महसूस करते हुए पेश किया है – लेकिन मन्टो हमें दूर खड़े, हालात का जायज़ा लेते, उन पर टिप्पणी करते हुए भी महसूस होते हैं।
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भारत की विविधताओं के रूप-आकार को देखते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद सवाल खड़ा होता है कि ऐसे देश में राष्ट्रीय एक... more भारत की विविधताओं के रूप-आकार को देखते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद सवाल खड़ा होता है कि ऐसे देश में राष्ट्रीय एकता का अर्थ और स्वरूप क्या होगा? इस सवाल का जवाब हमें अपने पिछले 67 साल के इतिहास में ही नहीं, पिछली कई सदियों के इतिहास में मिलता है, जिसे जानना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है – और इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हम इस विषय को देखेंगे तो हमारे लिए बहुत सी बातें स्पष्ट होंगी।
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This is a booklet brought out by Socially Active People's Theatre, Art and Cultural Group (SAPTRA... more This is a booklet brought out by Socially Active People's Theatre, Art and Cultural Group (SAPTRANG) and written by Prof. (Retd.) Rajinder Chaudhary who was, till last year, in the Dept. of Economics, Maharshi Dayanand University, Rohtak. SAPTRANG is an organisation working (mainly in Rohtak, Haryana) on socio-cultural issues with the aim of spreading awareness on issues of significance. Both 'Aadhaar' and subsidy are issues that touch the daily lives of the common man. The author thoroughly analyses all the aspects of both these issues, looking at them from a social-welfare point of view and how they are likely to impact the lives of the common man even as the issues are dilated upon in principle.
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Drafts by Ramnik Mohan
Article on Kashmiri Students, 2019
An overview of the situation arising from the harassment and attacks on Kashmiri students in the ... more An overview of the situation arising from the harassment and attacks on Kashmiri students in the wake of the suicide-bomber attack on the CRPF convoy in Pulwama.
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Book Reviews by Ramnik Mohan
ग्रामीण हरियाणा में घूँघट प्रथा : बदलते स्वरूप - 1880 से मौजूदा दौर तक, 2022
Book Cover with abstract, of the Hindi translation of the book 'The Veiled Women : Shifting Gende... more Book Cover with abstract, of the Hindi translation of the book 'The Veiled Women : Shifting Gender Equations in Rural Haryana 1880-1990' authored by Prof. Prem Chowdhry. Translator : Ramnik Mohan
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Papers by Ramnik Mohan
इस मसले पर भीष्म जी ने अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग समय पर कुछ न कुछ लिखा और कहा है मगर उंन की सैद्धान्तिक दृष्टि में कोई विशेष अन्तर आया प्रतीत नहीं होता – कम से कम 1978 से ले कर 2003 के बीच तो नहीं। विचार, विचारधारा, यथार्थ, कल्पना, लेखक का संवेदन, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता – रचना-प्रक्रिया में इन सब की भूमिका की ओर वे इशारा करते हैं।
Drafts by Ramnik Mohan
Book Reviews by Ramnik Mohan
इस मसले पर भीष्म जी ने अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग समय पर कुछ न कुछ लिखा और कहा है मगर उंन की सैद्धान्तिक दृष्टि में कोई विशेष अन्तर आया प्रतीत नहीं होता – कम से कम 1978 से ले कर 2003 के बीच तो नहीं। विचार, विचारधारा, यथार्थ, कल्पना, लेखक का संवेदन, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता – रचना-प्रक्रिया में इन सब की भूमिका की ओर वे इशारा करते हैं।